Wednesday, July 26, 2017

Bhartiya Rail Diaries latest episode featuring Kanhaiya Kumar and almost no girl!

15th April 2016। JNU row उस टाइम तक एकदम फ्रेश था और हर जगह इसी पर बात होती थी।
मुझे पासपोर्ट के सिलसिले में बिहार से अपने लोकल थाने से वेरिफिकेशन के लिए फ़ोन आये हुए क़रीब दस दिन हो चुके थे पर कॉलेज में सीनियर्स का फेयरवेल था 14 को और इतनी जल्दी टिकट भी कहाँ मिलता है बिहार जाने के लिए, इसीलिए मैं नहीं जा पाया था अभी तक। पापा ने SP आफिस से कहवा के मेरा आवेदन थाने में रुकवा लिया था इसीलिए मैंने भी सोच लिया था कि अब 14 के बाद ही जाऊँगा यहाँ से। 15 को मैंने तय किया कि जनरल टिकट ले के स्लीपर में चढ़ जाऊंगा और जैसा होगा टीटी से मैनेज कर लूंगा। नई दिल्ली स्टेशन पहुंचा तो भीड़ देखी, किसी कुम्भ के मेले जैसी थी। 15-20 टिकट काउंटर हैं, किसी भी टिकट काउंटर से मैं टिकट नहीं ले पाया। फिर पता नहीं क्यूँ प्लेटफॉर्म टिकट लेने का आईडिया आया; नीचे आया तो देखा कि वहाँ और ज्यादा लंबी लाइन है। सम्पूर्ण क्रांति का समय भी हो चला था और पकड़नी भी वही ट्रेन थी क्योंकि ऐसे बिना रिज़र्वेशन जाने का कष्ट जितना कम समय का हो उतना अच्छा। अंत में मेरे दोस्त ने एक लड़की से बात की, दोस्त हैंडसम था तो लड़की मान गयी और हँसते-हँसते लाइन में Women's Card खेलते हुए सबसे आगे जा पहुँची और हमारे लिए दो प्लेटफार्म टिकट ले आयी और प्यारी सी मुस्कुराहट के साथ हमें थमा दिया।
अब मैं प्लेटफार्म पर पहुँचा तो देखा कि यहां तो बाहर से चौगुनी भीड़ है। ट्रेन में जनरल डब्बे में लोग माचिस की तीलियों जैसे भरे पड़े हैं। आगे बढ़ा, स्लीपर में देखा तो वहां भी वही हालत है। इतनी भीड़ है कि लोग दरवाज़े से अंदर नहीं घुस पा रहे हैं। कुछ गरीब लोग अपने परिवार वालों को एमरजेंसी विंडो के सहारे अंदर धकेल रहे हैं। अंदर झांका तो जनरल डिब्बे जैसा ही हाल था। लोगों ने अंदर-बाहर ऊपर-नीचे बस किसी तरह खुद को फंसा लिया था। मेरे जैसे शहरी बच्चे में इतनी कुव्वत ही नहीं थी कि अंदर घुस पाता। "जब गांड में नहीं था गूदा तो काहे लंका में कूदा" वाली बात बार-बार दिमाग में घूम रही थी, अफ़सोस भी हो रहा था। एकाध बार को ख़्याल आया कि लौट जाऊं पर फिर पासपोर्ट का मोह भी था (क्योंकि मेरा पासपोर्ट कई तरह अटकलों के बाद एक साल में बना था)। तो एक दोस्त को फ़ोन किया और 2-3,000 रुपये मंगाए (कुछ अपने पास थे) और तय किया कि शासन-प्रसाशन अपनी #### ####, हम तो चढ़ेंगे अब AC में ही, चाहे जो फाइन लगे। दोस्त भला आदमी था (है) तो तुरंत पैसे लेकर पहुँच गया। AC3 में पहुंचे तो देखा कि वहाँ भी घुसने की जगह नहीं है क्योंकि जिनकी स्लीपर में कंफर्म टिकट थी और अंदर नहीं घुस पाए वो सब यहाँ घुस गए हैं। वहां भी हिम्मत नहीं हुई तो आगे AC2 की ओर बढ़े तो वहाँ भी लगभग वही नज़ारा, दरवाज़े पर 25-30 लोग ठुंसाये हुए हैं। अब एक ही उपाय था, AC1, तो उस ओर बढ़े तो देखा वहाँ कोई है ही नहीं, एकदम ख़ाली। अब ये तो और भी बुरी बात हो गयी क्योंकि जब आप नियम-क़ानून से खेल रहे होते हैं तो आप चाहते हैं कि कुछ लोग आपके साथ हो, आप एकदम से अकेले ना हो पर वहाँ हम दोनों दोस्तों के अलावा और कोई नहीं था। कोई उपाय नहीं था, हमनें सबसे पीछे जा कर गार्ड से बात कि, बात नहीं बनी, फिर हमनें सबसे आगे आ कर ड्राइवर को कहा कि अपने साथ इंजन में बैठा लीजिये, वो भी sarcastic हुआ कुछ देर फिर हमें भगा दिया। अंत में क्या करते, चढ़ गए हम दोनों AC1 में ही। (मेरा दोस्त बस मुझे छोड़ने आया था लेकिन उस साले को भी किक चाहिए था, इसीलिए वो भी चढ़ गया और तीसरा दोस्त फाइन भरने लायक पैसे देकर लौट गया, इस आश्वासन के साथ कि कुछ होगा तो फ़ोन करना, साला सब देख लिया जाएगा।)

अब शुरू हुई हमारी यात्रा, AC1 के दरवाज़े के पास बैठे-बैठे ग़ाज़ियाबाद भी नहीं आया था कि टीटी महोदय आ गए और हमें वहां से हटने कह दिया। हम नहीं माने तो पुलिस बुला कर बाहर फेंकवा देने की बात कही गयी। अंत में हार मान कर हम दोनों ही अंदर-अंदर AC2 में पहुँचे। वहाँ सब खड़े थे, हम भी खड़े हो लिये।
देखते-देखते (कष्ट झेलते-झेलते, tbh) जब कानपुर आने को आया तो टीटी ने वहां से भी कुछ लोगों को खदेड़ दिया, हम डटे रहें लेकिन उस टीटी की कृपा से अपने-अपने जगहों पर बैठने की जगह मिल गयी सबको। और जब सब बैठे तो शुरू हुई बातें।
हमारे सामने वाले भाईसाहब ने हमारे कपड़े-लत्ते और लगेज (जी हाँ, लगेज भी था) से हमें किसी सम्पन्न परिवार का जान बात शुरू की {और बतानी भी मुझे बस यही बात थी, ऊपर की कहानी बस इसीलिए बताई ताकि कल को आप जब बुलेट ट्रेन से यात्रा करें तो आपके ज़ेहन में ये बात होनी चाहिए कि लोग ऐसे भी सफ़र (suffer) करते हैं।}
बातों से मालूम चला कि भाई साहब भी मेरे ही शहर हाजीपुर से हैं और मेरे घर के पास ही रहते हैं। भाईसाहब को अपनापन लगा तो उन्होंने मुझसे मेरी जाति पूछ ली, उन्होंने पूछी तो मैंने उनकी पूछ ली (मैं जाति हमेशा मुझसे जाति पूछने वाले की हीं पूछता हूँ क्योंकि ये मेरे एक निज़ी social survey का हिस्सा है)।
तब भाईसाब ने पूछा कि, "भाई, JNU में तो नहीं पढ़ते हो?", क्योंकि लग तो वैसे ही रहे हो।
मैंने बताया कि नहीं मैं JNU में नहीं पढ़ता हूँ और उसका एंट्रेंस निकालने की मेरी औकात नहीं है इसीलिए शायद कभी पढ़ भी नहीं पाऊं।
ये बात भाईसाहब को खुश कर गयी और वो थोड़ा और खुल गए। JNU वाले ऐसे हैं, वैसे हैं, फलाना-ढिमकाना कहने लगे। वही सब बातें जो न्यूज़ चैनेल्स पर आपने सुनी होंगी।
फ़िर उन्होंने बोला कि, "ई कन्हैया जैसा छोट-जतिया (मूल शब्द ज्यादा offensive थे) सब आरक्षण ले के JNU पहुँच गया है और देश के ख़िलाफ़ बोलता है, हम तो कहते हैं कि कन्हैया को चौराहा पर खड़ा कर के गोली मार देना चाहिए।"
मैंने हँसते हुए कहा कि, "जानते हैं भईया, कन्हैया भी आप ही के जात का है और ऊ भी अइसा ओइसा नहीं, आपके जात के लोगों के बाहुबल के लिए मशहूर बेगूसराय ज़िले का है। इसीलिए उसको आप कम मत बूझिये, आप ही तरह मेरिटधारी है वो। और उसको अच्छे से पता है वो क्या कर रहा है, दिमाग से तेज़ होने के लिए तो आप लोग मशहूर हैं ही।"

भाईसाहब को लगा कि मैं मज़ाक कर रहा हूँ, उन्होंने कहा भी कि, "क्या बात करते हो? सही में? देखने से, पेन्हावा ओढ़ावा से लगता तो नहीं है।"
मैंने उनको यकीन दिलाया। अब भाईसाहब के हावभाव बदल गए। उनकी बातें नर्म हो गयी। उनको अब कन्हैया को गोली नहीं मारना था, अब उसकी Mob Lynching नहीं करनी थी। उन्होंने कन्हैया के हरक़तों (उनके हिसाब से जो हरक़तें थी) पर अफ़सोस जताया और कहा कि PhD में है, इतना तो समझना चाहिए था कि देश सबसे ऊपर है।
उनसे थोड़ी और बातें हुईं, दिल के भले आदमी थे।

फ़िर कुछ देर में कानपुर आ गया और हम सबको मैजिस्ट्रेट चेकिंग में AC2 से बाहर उतार के धर लिया गया, हाजीपुर वाले भाईसाहब से मुलाक़ात वहीं तक कि थी। वहां से आगे घर कैसे पहुंचे वो कहानी फिर कभी।
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आज कुणाल कामरा का नया वीडियो देखा कन्हैया-उमर के साथ तो ये किस्सा याद आया।

#भारतीय_रेल_डायरीज

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