Thursday, September 22, 2016

तुम मुझे दिल्ली सी लगती हो❤

तुम मुझे दिल्ली सी लगती हो।
कभी ग़ालिब की ग़ज़ल,
कभी खुसरो का ख़याल लगती हो ।
देखता हूँ जो हर साँझ तुम्हें,
तुम खुद में उलझी सी लगती हो।
जो सोचता हूँ कि आज कह दूंगा,
तुम देखते हीं क़िताब सी लगती हो।
जो करता हूँ कोशिश पढ़ने की,
तुम मेरे पुराने ख़्वाब सी लगती हो।
खुद में समेटे कई कहानियाँ,
तुम मुझे ताज़ सी लगती हो।
जो चाहता हूं छु कर देखूँ,
तुम मुझे अपनी फ़रियाद सी लगती हो।
जो छुप कर चाहता हूँ तुम्हें समझना,
तुम सामने से महताब सी लगती हो।
जो इतनी मासूम सी हो,
तुम किसी के सच्चे प्यार सी लगती हो।
जो करता है कोई मेरे अंदर सवाल,
तुम मुझे उस सवाल के जवाब सी लगती हो।
जवाब हो तुम मेरे अंदर के हर शोर का,
तुम फिर भी मुझे ख़ामोश सी लगती हो।
इश्क़ का मर्ज़ हो या हो उस मर्ज़ की दवा,
तुम मझे दुआ सी लगती हो।
ये तुम्हारी तदबीर है या मेरी खुश-ताबीर,
तुम मुझे मेरी तक़दीर सी लगती हो।
आगे तुम्हारे मैं निशब्द हो जाता हूँ,
तुम मुझे दिल्ली सी लगती हो।

-हिमांशु

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