Thursday, November 10, 2016

स्याह रातों की बात

जिन रातों को मुझे
कोई बेचैनी नहीं थी,
जिन रातों को मुझे
कोई उलझन नहीं थी,
जिन रातों को मुझे
कोई इंतेज़ार नहीं था,
पर जब मैं देखता था दीवारों पर लगे
मकड़ी के उन जालों को,
जब मैं सुनता था पानी के बूंदों की
निरंतर आती टप-टप की आवाज़ को,
जब मैं सोचता था बाहर पसरे
मुर्दा सन्नाटे के बारे में,
ये उन स्याह रातों की बातें हैं।

कहते हैं सपने
सोने नहीं देते।
सपना ही था कोई,
या शायद तैयारी हो रही थी
मन में कहीं,
उस सपने को जीने की।
या शायद युक्तियां सोची जा रही थी,
उस सपने को
उन स्याह रातों के कैद से निकालने की।
पर एक जूनून और भी था
आने वाले सूरज को रोक लेने का।
सुबह के लाल सूरज से कोई
दिक्कत थी शायद।
या शायद आसमान में बिखरी
सूरज की लालिमा पसंद नहीं थी।
रोशनाई के गाढ़े-नीले रंग सा
आसमान चाहिए था जब मुझे
ये उन स्याह रातों की बातें हैं।

उड़ान भरनी थी मुझे,
उस पतंग के साथ
जो मैंने खुद बनायी थी।
पर मेरी बनायी पतंग भी
मेरी तरह ही उड़ने से डरती थी।
डरती थी कहीं हवा तेज़ हुई तो क्या करेगी।
मैं भी डरता था।
डरता था कहीं पंख ना खुले तो क्या करूँगा।
धीरे-धीरे वो समझ गयी कि
तेज़ हवा में वो खुल के उड़ पायेगी।
एक दिन मैंने अपनी पतंग को आसमान में छोड़ दिया।
मेरे रोशनाई वाले गाढ़े-नीले आसमान में।
मेरी पतंग अब उड़ने लगी थी,
सपने अब भी कैद थे।
मैं अब भी डरता था।
हिम्मत के धागे जोड़ने थे जब मुझे
ये उन स्याह रातों की बातें हैं।
- हिमांशु

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