नकार दो मुझे।
मत पढ़ो मुझे।
क्यूँ पढ़ना मुझे,
या मेरे लिखे किसी भी झूठ को।
नापसंद हो जाऊं मैं,
तुम्हारे चित्त से उतर जाऊं,
यही चाहता हूँ मैं।
मैं चाहता हूँ तुम छोड़ दो मुझसे अब कोई आस रखना।
अब तक तुम्हारे जैसा हो कर,
जो भी कमाया है मैंने,
सब झूठ है।
अब और झूठ कमाना मेरे बस का नहीं।
तुम्हारी ये दुनिया,
जो बस झूठ पर चलती है,
इसका हिस्सा बनना अब,
नहीं चाहता हूँ मैं।
नहीं चाहता हूँ तुम्हारी दुनिया का झूठा प्यार।
सच्चे मन से आया था मैं,
पर तुमने,
और तुम्हारे जैसे तमाशबीनों ने,
झूठे प्यार का जो चोगा डाल दिया है मेरे ऊपर
वो मेरे सच्चाई का ईनाम नहीं है।
ये जो तुमने षड़यंत्र रचा है झूठी शोहरत का,
इसके दांव-पेंच सीखना
नहीं चाहता हूँ मैं।
मैं धड़ाम से मुँह के बल गिर जाना चाहता हूँ।
तुम्हारे झूठे आसमान में उड़ने से बेहतर है गिर जाना।
क्योंकि गिर का संभला जा सकता है,
पर अगर एक बार,
तुम्हारे बनाये किसी झूठ की अट्टालिका से टकरा गया,
तो टूट कर ढहे हुए उसी मलबे में शामिल हो जाऊंगा।
उस मलबेे तले अपने सूरज बिना,
मुरझाई हुई कोम्पल बनना,
नहीं चाहता हूँ मैं।
मैं डरा नहीं हूँ तुम्हारे इस झूठे मायाजाल से।
बस इतना साहस मैंने पहले कभी महसूस नहीं किया था।
इतना साहस कि अकेला हो जाऊं,
अपनी सच्चाई के साथ।
मेरी वही सच्चाई जिसको तुम भ्रष्ट करने देना चाहते हो,
अपने जैसा बना देने की होड़ में।
तुम्हारे चंद ठहाकों के लिए,
और सस्ता हो जाना,
नहीं चाहता हूँ मैं।
मंजूर है मुझे बंद हो जाना अकेलेपन की काल-कोठरी में।
तुम्हारे झूठे इशारों से मन बहलाने से बेहतर है वो।
पर उस अँधेरी कोठरी से,
मेरा कालजयी सच बाहर निकले,
शायद उसको भी तुम नकार दो,
जिसे तुम अनसुना कर दो,
पर मेरा वही सच मेरे साथ चले और मेरी पहचान बने,
वही सच तुम्हारे कानों को बहरा कर देने तक गूँजें,
यही चाहता हूँ मैं।
~ © हिमांशु
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