Saturday, November 18, 2017

निशा!

मैंने कई रातों से दिन नहीं देखा। दरवाज़े के उस पार रौशनी है, चारों ओर उज़ाला ही उज़ाला है। मुझे रौशनी पसंद नहीं है, उज़ाले पसंद नहीं है। रौशनी अपने साथ दिन का शोर लाती है, दिन की चहलकदमी लाती है। मेरा सर फटता है रौशनी और उसके शोर में। रात में ऐसा नहीं होता। ऐसा नहीं है कि रात में शोर नहीं होता। रात चीख़ती है। पर रात सुनती भी है। दिन में कोई नहीं सुनता, दिन भी नहीं सुनता। सब बोलते जाते हैं, दिन भी बोलता जाता है। आपके भीतर भी कोई बोल रहा होता है, आप उसको नहीं सुनते। कई बार अकेले रास्तों पर सुन के अनसुना कर देते हैं। रात में आपके भीतर की आवाज़ें भी चीखने लगती है; रात में आप सुनते हैं। आप अपने भीतर की आवाज़ को क़ाबू में कर लेना चाहते हैं; नहीं कर पाते हैं तो ज़वाब ढूँढते हैं, उपाय ढूँढते हैं। रात को आपको समय देती है साहसी बन जाने का। रात आपको ख़ुद पर विजयी होना सिखाती है। रात के सन्नाटे में जब आप चीख़ते हैं तो रात सुनती है, जब रात चीख़ती है तो आप सुनते हैं। उज़ाला आंखों में चुभता है, अंधेरा कभी किसी की आँख में नहीं चुभा। रात के अकेलेपन में आप अकेले नहीं होते। आप के साथ आप होते हैं। दिन के उज़ाले में आप बस भीड़ का हिस्सा होते हैं। दिन में आप दुत्कारे जाते हैं, रात आपको क़रीब लाती है, खुद के, दूसरों के। रात प्यारी चीज़ है; रात प्यार करना सिखाती है, प्यार करने के मौके देती है। मैंने रात में जीना चुना है। मैंने रात को जीना चुना है।

~हिमांशु

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