Thursday, January 26, 2017

AFSPA

2004 की बात है। 7-8 साल की उम्र थी मेरी और वो बचपन का समय था जब हर कोई मुझसे पूछता था कि बेटे बड़े होकर क्या बनोगे और मैं भी तब तक "बॉर्डर," "माँ तुझे सलाम,"इंडियन," और "द हीरो" जैसी फ़िल्में कई मर्तबा देख चुका था, इसीलिये कई जवाबों में एक ज़वाब आर्मी ज्वाइन करना भी होता था। मैं तब क्लास 3 में बस प्रोमोट ही हुआ था कि 2004 के जनरल इलेक्शन्स शुरू हो गए थे। हमारे स्कूल में सैन्य बलों का कैंप लग गया था और स्कूल बंद हो गया था। हमारी ख़ुशी की इन्तेहाँ नहीं थी। मेरे घर के पास एक कॉलेज है जिसके छोटे से ग्राउंड में हम कभी-कभार क्रिकेट खेला करते थे और हमारा शार्ट-कट रास्ता भी उसी ग्राउंड से हो कर था। वहां भी कैंप लगा था।

स्कूल तो बंद हो ही गया था, हमारा उस रास्ते से हो कर जाना भी बंद हो गया था। लगभग एकाध महीने तक चारों ओर फ़ौज थी। इतनी फैज़ मैंने इस से पहले बस फिल्मों में ही देखी थी। INSAS rifle का बस नाम सुना था बड़े भाईयों से, वो देखने मिल रहा था। शुरू-शुरू में तो बड़ा कूल लगता था पर फ़िर धीरे-धीरे असहजता महसूस होनी लगी थी क्योंकि कोई डरपोक ना कहे इसीलिये जाता मैं तो उसी शॉर्टकट वाले रास्ते ही था पर जाने में डर से मेरी जो हालत होती थी ये मैं ही जानता था।

फ़िर जब स्कूल ज्यादा बंद हो गया तो स्कूल वालों का हमारी पढाई और सिलेबस की चिंता होने लगी। जवानों से आग्रह किया गया कि वो स्कूल आवर्स में अपने बसों में बैठ जाए या ग्राउंड में रहे ताक़ि क्लासेस चल सके। जवानों का क्या है, अच्छे भले लोग थे मान गए। अब जब हम स्कूल जाते तो पूरा ग्राउंड सेना की बसों से और जवानों से भरा था। कुछ जवान बंदूकें लेकर पहरा देते स्कूल भर में और कुछ जवान बसों के नीचे लेट कर पत्ते खेलते। उन्होंने कभी हमें डिस्टर्ब नहीं किया। पर वो, वो उम्र थी जब लंच ब्रेक में बिना दोस्तों के साथ कुछ खेले लगता ही नहीं था कि स्कूल आये हैं। पर चारों ओर बंदूकों के पहरे से डर भी लगता था।  कई बार मन किया कि जवानों से जा कर कहूँ एक बार असली बन्दूक की असली गोली दिखाने को पर डर लगता था। कुछ दोस्त कहते थे कि उनकी बस के तरफ़ जाओगे तो गोली मार देंगे तुमको और हमारी डर से गीली हो जाती थी।

ख़ैर, धीरे-धीरे वो एक-डेढ़ महीने का समय निकल गया और जवान वापस लौट गए। हमारा ग्राउंड फिर हमारा था और हम फ़िर से भयमुक्त हो कर खेल सकते थे।

धीरे-धीरे मैं थोड़ा बड़ा हुआ तो पता चला कि AFSPA नाम का कोई कानून है जो कई राज्यों में लागू है। फिर पता चला कि ईरोम शर्मिला नाम की कोई महिला इसके विरोध में सालों से भूख हड़ताल पर है। ये न्यूज़ मेरे काम की नहीं थी इसीलिये मैंने ज्यादा पढ़ना जरुरी नहीं समझा।
जब 9-10th तक पहुँचा तो स्कूल में सर ने बताया कि AFSPA में हर समय चारो ओर आर्मी रहती है। ये सही था या ग़लत ये उन्होंने नहीं था क्योंकि शायद उनके बस का नहीं था। तब तक मेरे चाचा भी नागालैंड से अपना बिज़नेस wind-up कर के लौट चुके थे। कुछ बातें उन्होंने बताई नार्थ-ईस्ट के हालात के बारे में। कुल मिला कर मैं तब तक ये समझ नहीं पाया था कि AFSPA बुरा है या अच्छा है।

पिछले साल कई ऐसी घटनाएं हुई जिस ने सेना और देश के प्रति लोगों की ईमानदारी को अपने अपने तरह से डिफाइन कर दिया था। JNU ROW हो या कश्मीर घाटी में लोगों का सेना पर पत्थर चला के बदले में अपनी आँखे फोड़वा लेना हो, देशभक्ति और देशद्रोह के बीच AFSPA भी खूब चर्चे में रहा।

अब जब मैं बचपन के उस एक महीने का रेट्रोस्पेक्ट करता हूँ तो लगता है कि मैं तो बस एक महीने तक सिर्फ कुछ घंटे ही सेना से घिरा रहता था फ़िर भी मेरी हालत ढ़ीली रहती थी। और इस देश की एक बड़ी आबादी, जिसमें लाखों बच्चे होंगे, सालों से उसी डर से साये में है। जब भी मैं सोचने की कोशिश करता हूँ कि कैसा होगा इस तरह से जीना कि एक मिनट के लिए भी घर से बाहर निकलो तो कोई सामने बन्दूक लिए खड़ा मिले, तो मैं उन बच्चों के डर के अनुमान तक नहीं लगा पाता हूँ। एक बार के लिए तो ये भी लगता है कि जो बच्चा पैदा होते ही हर तरफ़ बन्दूक ही देख रहा है, वो बाद में बन्दूक नहीं उठाएगा तो क्या करेगा। (पर ये पूरी तरह से मेरी भावनात्मक सोच है, आप इस से अलग राय रख सकते हैं। आपका अधिकार है।)
हम बस यहाँ अपने-अपने घरों में टीवी देख के उन लोगों, उन औरतों और बच्चों को कोसते रहते हैं, उनकी देशभक्ति तय करते रहते हैं पर हम सबको इस बात का एक रत्ती भी ज्ञान नहीं है कि उनको कैसा लगता है हर समय बंदूकों से घिरे रहने में।

ख़ैर, ज्यादा लोड मत लीजिये। ये सब सरकारी समस्या है। मौसम बढ़िया है, लुफ़्त उठाईये। बस ऐसेहीं कल से व्हाट्सएप्प पर रिपब्लिक डे वाले बधाई संदेश आ रहे थे तो मुझे ये बात याद आ गयी।

आप सबको गणतंत्र दिवस की ढेरों शुभकामनायें। सुरक्षित रहिये, मुस्कुराते रहिये। जय हिंद।

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